हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का प्रयोग!
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स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ अपने आप में देश के लोगों के लिए एक बड़ा आयोजन है, बड़ा त्योहार है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल ने इसे और बड़ा बना दिया है। उन्होंने इसमें भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ के समारोह को भी मिला दिया है। उस नाते जिस अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में 1942 में भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास हुआ था, वह कांग्रेस पार्टी इस मामले में पिछड़ी और लापरवाह साबित हुई। बहरहाल, भारत छोड़ो आंदोलन और स्वतंत्रता दिवस समारोह को मिला कर सरकार ने इसे दो हफ्ते चलने वाला बड़ा महोत्सव बना दिया। नौ अगस्त से शुरू होकर ये समारोह 23 अगस्त तक चलने वाले हैं।
इस दौरान भारतीय जनता पार्टी के सांसद तिरंगा यात्रा निकालेंगे। वे एक हफ्ते तक तिरंगा महोत्सव मनाएंगे। तभी हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का नया मिक्स राजनीति में झलक रहा है। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में इस दफा कावंडियों ने तिरंगे को ले कर पदयात्रा की। संघ के संगठनों ने कांवडियों को तिरंगे दिए। कांवड यात्रा में भगवा रंग होता है साथ में यदि तिरंगा लहराता मिले तो उसका प्रभाव अलग बनेगा। पश्चिम उत्तरप्रदेश में राष्ट्रवाद और भगवा का यह रंग इस दफा सभी ने महसूस किया। मगर उत्तरप्रदेश की राजनीति के बाहर भी इस प्रयोग का अर्थ है। कांवड यात्रा बिहार, झारखंड, हरियाणा, उत्तरप्रदेश आदि कई जगह खास मतलब रखती है। मौटे तौर पर 20 से 40 साल की उम्र के बीच के नौजवान कांवड यात्रा में शरीक होते है। इन यात्रियों की जातिय, सामाजिक बुनावट का अलग सियासी मतलब है। उस नाते पहली बार संघ परिवार के संगठनों ने पश्चिम उत्तरप्रदेश में जो प्रयोग किया है वह आगे फैलेगा।
एक हिसाब से हिंदुत्व के साथ राष्ट्रवाद का नया मिक्स भाजपा के लिए महत्वपूर्ण है। घटनाओं और हालातों ने राष्ट्रवाद को धार दी है। कश्मीर घाटी की घटनाओं का पूरे देश में असर है। मीडिया ने जो बहस बनाई है उससे भी राष्ट्रवाद का मुद्दा हावी हुआ है । आंतकी बुरहान की मौत और उस पर घाटी में उपद्रव ने उस हिंदू जनमानस को झिंझोडा है जो नरेंद्र मोदी और भाजपा का समर्थक था मगर मोहभंग की तरफ बढ रहा था। मतलब भाजपा और संघ में सोच है कि मई 2014 में जो हिंदूवादी वोट आधार था उसे पुख्ता बनाने में राष्ट्रवाद उपयोगी है।
तभी पूरे देश में और खास कर उत्तरप्रदेश में नौ से 22 अगस्त तक मोदी सरकार दमखम से राष्ट्रवादी अलख जगा रही है। परसो पंद्रह अगस्त को पूरे दिन नए अंदाज में भाजपा सांसदों, नेताओं ने तिरंगा यात्रा निकाली गई। तिरंगे और राष्ट्रगान की धुन के आयोजन हुए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से ले कर नितिन गडकरी, स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा आदि तमाम नेता तिरंगा प्रोग्राम में शामिल हुए या होने वाले है। मकसद माहौल में तिरंगे और राष्ट्रवाद की हवा को पसारना है। इसमें मुस्लिम स्कूल मे राष्ट्रगान पर पाबंदी जैसे विवाद तिरंगा महोत्सव को नई धार देने वाला है।
इलाहाबाद के एक स्कूल ने राष्ट्रगान पर पाबंदी लगाई। यह विवाद हिंदुवादी संगठनों के लिए मुद्दा है। इस घटना के बाद तिरंगा महोत्सव में राष्ट्रगान की अहंमियत सियासी तौर पर बढ गई है। सोचा जा सकता है कि 9 अगस्त और 15 अगस्त के आज के दिन से भाजपा की राजनीति में तिंरगा यात्रा, राष्ट्रवाद का नया प्रयोग है। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक राष्ट्रवाद का महोत्सव मनाने का फैसला किया है। उन्होंने देश के मूड को भांप कर यह फैसला किया है। असल में इस समय देश में और देश के बाहर कुछ ऐसी घटनाएं हुईं हैं, जिनसे आम लोगों के मन में राष्ट्रवाद की भावना जगी है। इसकी झलक इस साल की कांवड़ यात्रा में दिखी। उत्तराखंड के हरिद्वार से गंगा जल लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा के दूरदराज के गांवों और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पहुंचने वाले कांवड़ियों ने इस बार अपने कांवड़ में भगवा झंडे के साथ तिरंगा भी बांधा था। उनकी गाड़ियों पर इस बार भगवा झंडे के साथ तिरंगा भी लगा था और डीजे में भक्ति गानों के साथ देशभक्ति के गाने भी बज रहे थे।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और कांवड़ में तिरंगा लगाने का एक खास राजनीतिक मतलब भी हो सकता है। लेकिन यह लोगों की सोच में आए एक बड़े बदलाव का प्रतीक भी है। इसके पीछे राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की तैयारी भी होगी, लेकिन बड़ी बात यह है कि लोगों ने इसे स्वाभाविक रूप से स्वीकार किया। इसी बीच उत्तर प्रदेश के एक प्राइवेट स्कूल में राष्ट्रगान पर पाबंदी लगाने की खबर आई। स्कूल के इस फरमान के खिलाफ कई शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया। बाद में स्कूल प्रबंधक को गिरफ्तार किया गया। लेकिन इस घटना से तिरंगे को लेकर लोगों में एक अलग जुनून पैदा हुआ। इससे भी पहले कश्मीर घाटी में भारत विरोधी कई घटनाएं हुईं, जिसने लोगों को आंदोलित किया।
निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा और आरएसएस ने लोगों के इस मूड को भांप कर राजनीतिक रणनीति तय की होगी। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि देश में इस समय दलित उत्पीड़न और सामाजिक बेचैनी की जो दूसरी घटनाएं हो रही हैं, उनके ढंकने के लिए राष्ट्रवाद का इस्तेमाल किया जा रहा है। लेकिन चाहे जिस मकसद से किया जा रहा हो, इस बार का स्वतंत्रता दिवस पहले से काफी अलग हो गया है।
असल में प्रधानमंत्री मोदी को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खतरे का अहसास है। उससे वोट तो बनते हैं, लेकिन अंततः देश और दुनिया में नेतृत्व की छवि बिगड़ती है। इसके मुकाबले राष्ट्रवाद यानी इंडिया फर्स्ट का नारा ज्यादा उपयुक्त है। यह राजनीति भी फायदे वाली है। तभी सरकार ने दो हफ्ते के उत्सव का आयोजन किया। दिल्ली के राजपथ को सांस्कृतिक आयोजन का केंद्र बना दिया गया। सारी सरकारी इमारतें दुल्हन की तरह सजाई गईं और देश भर में तिरंगा यात्रा निकली। इनके बीच कांवड़ यात्रा से धार्मिकता भी शामिल हो गई, जिससे इसका असर और ज्यादा व्यापक हो गया।
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